
लोकसभा अध्यक्ष ओम बिरला ने मंगलवार को संसद में बड़ा ऐलान करते हुए बताया कि इलाहाबाद हाई कोर्ट के न्यायमूर्ति यशवंत वर्मा को पद से हटाने के प्रस्ताव पर जांच के लिए तीन सदस्यीय समिति बनाई गई है।
यह समिति न्यायाधीश जांच अधिनियम 1968 की धारा 3(2) के तहत गठित की गई है और इसका मकसद है— आरोपों की गंभीरता और वैधता की जांच।
कौन हैं समिति के सदस्य?
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जस्टिस अरविंद कुमार – हाई कोर्ट के न्यायाधीश
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जस्टिस मनिंदर मोहन श्रीवास्तव – मद्रास हाई कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश
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बीवी आचार्य – कर्नाटक हाई कोर्ट के वरिष्ठ अधिवक्ता
लोकसभा अध्यक्ष ने स्पष्ट किया कि समिति अपनी रिपोर्ट “जल्द से जल्द” पेश करेगी और तब तक हटाने का प्रस्ताव लंबित रहेगा।
विवाद की जड़: सरकारी आवास में आग और नोटों की गड्डियां
मार्च 2025 में जस्टिस वर्मा के सरकारी आवास में अचानक आग लग गई थी। जब फायर ब्रिगेड पहुंची और आग बुझाई, तब उनके आउटहाउस से जली हुई नकदी की गड्डियां बरामद की गईं। यह दृश्य न केवल जांच एजेंसियों को चौकन्ना कर गया, बल्कि जनता और संसद दोनों को हिला गया। हालांकि जस्टिस वर्मा ने इन नोटों के बारे में जानकारी होने से साफ इनकार किया।
न्यायपालिका बनाम जवाबदेही का संघर्ष
क्या यह सिर्फ आग थी या संकेत था?
सरकारी आवास में आग लगना कोई नई बात नहीं, लेकिन नकदी की गड्डियों का जलना एक बड़ा संकेत है कि जांच जरूरी है।
संवैधानिक प्रक्रिया की शुरुआत – दुर्लभ पर ऐतिहासिक
भारत में न्यायाधीशों को हटाना संवैधानिक रूप से बेहद दुर्लभ प्रक्रिया है।
इससे पहले सिर्फ एक जज (जस्टिस वी. रामास्वामी) को हटाने का प्रयास हुआ, लेकिन संसद में बहुमत न मिलने के कारण वह हटाए नहीं जा सके।

राजनीति और न्यायपालिका का टकराव?
केंद्रीय मंत्री किरन रिजिजू ने इस प्रक्रिया का समर्थन कर कहा था कि सांसदों से हस्ताक्षर जुटाए जा रहे हैं और अधिकतर राजनीतिक दल इस कदम के पक्ष में हैं।
यह संकेत करता है कि मामला केवल कानूनी नहीं, बल्कि राजनीतिक रूप से भी संवेदनशील हो चुका है।
क्या आगे आने वाला है?
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जांच समिति की रिपोर्ट इस पूरे घटनाक्रम की दिशा तय करेगी।
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अगर आरोप सिद्ध होते हैं, तो संसद में इंपीचमेंट मोशन लाया जा सकता है।
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यदि आरोप झूठे या अपर्याप्त पाए गए, तो यह मामला न्यायपालिका की गरिमा पर दाग की तरह रहेगा।
जस्टिस यशवंत वर्मा के मामले ने न्यायपालिका में जवाबदेही की बहस को फिर से जीवित कर दिया है।
यह देखना दिलचस्प होगा कि क्या यह प्रक्रिया वास्तव में न्याय सुनिश्चित करेगी या महज़ एक राजनीतिक कवायद बनकर रह जाएगी।
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